एक ऐसे राजा की कथा जो ब्राह्मणों के शाप के कारण कुटुम्ब सहित नष्ट हो गया था और कुटुम्ब सहित ही अगले जन्म में राक्षस कुल में जन्मा था।
यह महत्वपूर्ण कथा सुनाने से पहले मैं आपसे एक प्रसंग साझा करना चाहता हूँ। एक युवक को फिल्म देखने का बहुत शौक था। एक-एक फिल्म को कई-कई बार देखता था। एक बार वो कहीं पर बैठकर डींग मार रहा था कि मैंने शोले फिल्म 20 बार देखी है। तभी वहां बैठे एक सज्जन ने उससे पूछा कि क्या तुम बता सकते हो कि फिल्म में गब्बर के बाप का नाम क्या था? प्रश्न सुनकर वह बोला कि फिल्म में गब्बर का बाप था ही नहीं इसलिए उसके बाप के नाम होने का सवाल ही नहीं उठता। इस पर उस सज्जन ने जवाब दिया कि देखो गब्बर को सजा सुनाते वक्त जज गब्बर के बाप का नाम लेता है। जज कहता है कि गब्बर सिंह वल्द हरि सिंह....? यानी फिल्म में गब्बर सिंह के बाप का नाम हरि सिंह था। यह सुनकर युवक का मुँह लटक जाता है। यह प्रसंग साझा करने का एक उद्देश्य यह कि हम अपने धर्म को लेकर बहुत ही भावुक होते हैं लेकिन धर्म या धर्मग्रंथों की बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें बहुत से लोग नहीं जानते! जिनके जानने की अपेक्षा हमसे होती है। रामायण को ही ले लीजिए। तुलसीदासकृत रामचरितमानस में तमाम प्रसंग हैं। लेकिन लोगों को पता ही नहीं। मेरे गाँव में ही हर साल बहुत से घरों में रामायण का पाठ होता है जिसमें रामचरितमानस की चौपाइयों को माइक पर पढ़ा जाता है ताकि सब सुन सके। कभी-कभी हिंदी अर्थ भी बताया जाता है। लेकिन किसी से रामचरितमानस के किसी प्रसंग के बारे में जानना चाहोगे हूँ तो बहुत सारे लोग बता ही नहीं पाएँगे। ऐसा ही एक प्रसंग आज मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ। आशा है यह आपको पसंद आएगा।

प्राचीन समय में कैकय नाम का एक देश (राज्य) था जिसके राजा सत्यकेतु थे। राजा सत्यकेतु बड़े बलवान, तेजस्वी और प्रतापी राजा थे। राजा के दो पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम प्रतापभानु था और छोटे पुत्र का नाम अरिमर्दन था। अरिमर्दन युद्ध में पर्वत के समान अटल रहता था। उसकी भुजाओं में बड़ा बल था। दोनों भाइयों में अत्यधिक प्रेम और स्नेह था। समय आने पर राजा का बड़ा लड़का राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। बड़े पुत्र को राज-काज सौंपकर राजा सत्यकेतु भगवान के भजन के लिए वन को चले गए। उधर राजा प्रतापभानु वेद में बताई रीति से प्रजा का पालन करने लगे। उनके राज्य में लेशमात्र भी पाप नहीं होता था। राजा के मंत्री का नाम धर्मरुचि था। धर्मरुचि बड़ा ही बुद्धिमान और राजा का हित चाहने वाला था। वो राजा के हित के लिए उन्हें नीति सिखाया करता था।
राजा प्रतापभानु के पास चतुरंगिणी सेना थी जो अत्यधिक शक्तिशाली थी। अपनी सेना के शौर्य पर राजा मन ही मन बहुत प्रसन्न रहता था। शुभ दिन और मुहूर्त पर राजा दिग्विजय के लिए चल पड़ा। जहाँ-तहाँ लड़ाइयाँ हुईं। राजा प्रतापभानु ने सब राजाओं को जीत लिया। अपनी भुजाओं के बल से राजा ने सातों द्वीपों को अपने वश में कर लिया। जिन राजाओं को जीता था उनसे दंड वसूल कर उन्हें छोड़ दिया। उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र चक्रवर्ती राजा था।
दिग्विजय के बाद राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। राजा प्रतापभानु के राज्य में प्रजा सुखी थी। सभी स्त्री-पुरुष धर्मात्मा थे। स्वयं राजा वेदों के अनुसार राजा के जो भी कर्तव्य थे उनका पालन करता था। प्रतिदिन दान देता था। उत्तम शास्त्र, वेद, और पुराण सुनता था। वेद-पुराणों में जो यज्ञ राजा के लिए बताए गए थे उन सब यज्ञों को राजा ने प्रेम सहित हजार-हजार बार किया था। उसने ब्राह्मणों के लिए घर, प्रजा के लिए कुएँ-तालाब, फूलबाड़ियाँ और बगीचे बनवाए थे।
एक बार राजा प्रतापभानु एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर विंध्याचल के घने जंगलों में शिकार के लिए गया था। राजा को जंगलों में एक सुअर दिखाई दिया। अपने दाँतों के कारण वह सुअर ऐसा प्रतीत होता मानो चंद्रमा को ग्रसकर राहु वन में आ छिपा हो। चंद्रमा बड़ा होने से उसके मुँह में समाता नहीं और क्रोधवश राहु उसे उगलता नहीं। विशाल शरीर वाला यह सुअर घोड़े की आहट से घुरघुराता हुआ चौकन्ना होकर देखता है।
राजा, नील पर्वत के शिखर के समान विशाल इस सुअर की ओर बढ़े। राजा को अपनी ओर आता देख सुअर भाग खड़ा हुआ। राजा ने बाण चलाया लेकिन सुअर दुबक गया। राजा ने सुअर को मारने के बहुत प्रयास किए लेकिन सुअर छल से हर बार बच जाता। वार होने पर छिप जाता लेकिन बाद में पुन: प्रकट हो जाता। राजा क्रोधवश सुअर को मारने के लिए आगे बढ़ता गया। सुअर बहुत दूर घने जंगल में चला गया। लेकिन राजा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा और उसके पीछे चलता गया। घबराकर सुअर एक पहाड़ की गुफा में जा छिपा। गुफा में जाना कठिन जानकर राजा बड़ा निराश हुआ और लौटने लगा लेकिन घोर वन में रास्ता भटक गया।
भूख-प्यास से बेहाल थका-मांदा राजा नदी-तालाब खोजने लगा। वन में भटकते-भटकते राजा को एक आश्रम दिखाई दिया। उस आश्रम में मुनिवेश बनाए एक राजा, जिसका राज्य प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था, रहता था। कपट से मुनिवेश बनाकर रहना वाला राजा युद्ध से भागने की ग्लानि के चलते न तो घर ही गया था और अभिमानी होने की वजह से प्रतापभानु से भी नहीं मिला था।
प्रतापभानु को अपने आश्रम में देखकर कपटी मुनि ने उसे पहचान लिया लेकिन अत्यधिक प्यासा और थका होने की वजह से प्रतापभानु उसे नहीं पहचान सका। कपटी मुनि का वेष देखकर राजा प्रतापभानु ने उसे महामुनि समझा और अपने घोड़े से उतरकर उसे प्रणाम किया। हालाँकि अत्यधिक चतुर होने की वजह से राजा ने मुनिवेशधारी कपटी राजा को अपना नाम नहीं बताया।
मुनि ने राजा प्यासा जानकर उसे सरोवर दिखलाया। राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया। कपटी तपस्वी, राजा को आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जान उसे आसन देकर अत्यधिक कोमल वाणी में उसने राजा से पूछा, "तुम कौन हो?" तुम्हारे लक्षणों से लगता है कि तुम चक्रवर्ती राजा हो। लेकिन तुम्हें देखकर मुझे तुम पर दया आती है।
राजा ने कहा कि प्रतापभानु नाम का एक राजा है । मैं उसका मंत्री हूँ। वन में रास्ता भूल गया हूं। मेरा बड़ा भाग्य है कि आपके चरणों के दर्शन हुए। कपटी तपस्वी ने कहा कि तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है और अब अँधेरा हो गया है। इसलिए आज यहीं ठहरो। सबेरा होते ही चले जाना। राजा ने कहा जैसी आपकी इच्छा।
इसके बाद में राजा ने उस तपस्वी की भाँति-भाँति से प्रशंसा की और उसका परिचय जानना चाहा। राजा अभी तक उसे पहचान नहीं पाया था। जबकि तपस्वी राजा को देखते ही पहचान गया था। राजा शुद्ध हृदय वाला था लेकिन तपस्वी कपटी था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय और फिर राजा । इसलिए उसने छल-बल से अपना काम बनाना चाहा।
राजा की बात सुनकर तपस्वी मन ही मन प्रसन्न हुआ और फिर बोला," हम निर्धन और भिखारी हैं।"
राजा ने कहा कि आप जैसे अभिमान रहित सदा अपने स्वरूप को छिपाए रहते हैं। मुझे पर कृपा करें। आप जो हैं सो हैं। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूं। राजा को अपने वश में जान कपटी तपस्वी फिर बोला। सुनो राजा मैं आपको सत्य कहता हूँ। मैं यहाँ लंबे काल से हूँ। आजतक मैं किसी से नहीं मिला। मैं छिपकर रता हँ। मेरा किसी से कोई प्रयोजन नहीं है। तुम सरल हृदय वाले राजा हो इसलिए तुम्हें बताता हूं। हमारा नाम एकतनु है। कपटी तपस्वी ने कहा कि जब सृष्टि की उत्पत्ति हुई थी तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तब से मैंने दूसरा देह धारण नहीं किया है। इसी से मेरा नाम एकतनु है।
राजा को आश्चर्यचकित देख कपटी मुनि बोला, " पुत्र मन में आश्चर्य मत करो। तप से सबकुछ संभव है। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे तप से हासिल न किया जा सके।" यह सुनकर राजा को बहुत अच्छा लगा। कपटी ने और भी बहुत सी कथाएँ सुनाई। तप की महिमा का वर्णन किया। तपस्वी के वश में होकर राजा उसे अपना नाम बताने लगा। कपटी बोला कि मैं तुम्हारा नाम जानता हूं। लेकिन मुझे तुम्हारा कपट अच्छा लगा। यह नीति के अनुसार है कि राजा जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं बताते। इसलिए तुमपर मुझे प्रेम आ रहा है।
तुम्हारा नाम प्रतापभानु है। तुम्हारे पिता सत्यकेतु थे। राजन गुरुकृपा से मैं सब जानता हूँ। तुम्हारी सरलता, सीधापन देखकर मेरे मन में तुम्हारे लिए ममता उत्पन्न हो गई है। मैं प्रसन्न हूँ। जो तुम्हारे मन को भावे वही माँग लो। कपटी मुनि के ऐसे वचन सुनकर राजा मन में अत्यधिक हर्षित हुआ। राजा ने कपटी मुनि से कहा." मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दु:ख से रहित हो, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो।"
कपटी तपस्वी ने कहा - हे राजन! ऐसा ही हो, काल तुम्हारे चरणों में सिर नवाएगा। लेकिन तप के बल से ब्राह्मण बलवान रहते हैं तुम्हें उनके क्रोध से बचना होगा। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम बाह्मणों को वश में कर लो तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे। ब्राह्मणों के शाप के अतिरिक्त तुम्हारा नाश किसी काल में न होगा। कपटी मुनि ने आगे कहा कि मुझसे मिलने के बारे में किसी और से कुछ न कहना क्योंकि छटे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा।
राजा ने कपटी मुनि से कहा कि मैं तो केवल एक ही डर से डर रहा हूं कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है। फिर उसने कपटी मुनि से ब्राह्मणों को अपने वश में करने का उपाय पूछा। कपटी मुनि ने कहा कि उपाय तो बहुत हैं लेकिन सभी बड़े कष्टसाध्य हैं। मैं तुम्हें एक सहज उपाय बताता हूं लेकिन उसमें भी एक कठिनता है। कारण यह है कि मैं जब से पैदा हुआ हूँ तब से किसी के घर अथवा गाँव में नहीं गया हूँ। लेकिन नहीं जाता हूँ तो तुम्हारा काम बिगड़ता है।
यह सुनकर राजा कोमल वाणी में बोला कि बडे लोग छोटों पर स्नेह करते हैं। ऐसा कहकर राजा ने कपटी मुनि के चरण पकड़ कर कहा कि आप मेरे लिए इतना कष्ट करिए। कपटी बोला कि राजन् जगत में मेरे लिए कुछ भी दुलर्भ नहीं। मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा। हे राजन्! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जान न पावे, तो उस अन्न को जो कोई खाएगा सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा। यही नहीं, भोजन करने वालों के घर भी जो कोई भोजन करेगा वो भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। नए ब्राह्मणों को आमंत्रित करना। मैं तुम्हारे संकल्प के लिए एक वर्ष तक भोजन बना दिया करूँगा। इस प्रकार सभी ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे और वे तुम्हारे लिए हवन, यज्ञ और पूजा करेंगे जिससे देवता भी तुम्हारे वश में हो जाएँगे। मैं इस रूप में कभी नहीं आऊँगा। राजन! मैं माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा और तप के बल से एक वर्ष तक उसे यहाँ रखूँगा और मैं उसका रूप बनाकर तुम्हारा कार्य सिद्ध करूँगा। अब तुम सो जाओ। मैं तप के बल पर घोड़े सहित तुमको सोते ही घर पहुँचा दूँगा। आज से तीसरे दिन हमारी भेंट होगी। मैं पुरोहित बनकर आऊँगा और तुम्हें सब कथा सुनाउँगा तो तुम मुझे पहचान लेना। आज्ञा मानकर राजा सो गया।
उसी वक्त कालकेतु राक्षस आया जिसने सुअर बनकर राजा को खूब छकाया था और वन में भटका दिया था। कालकेतु और तपस्वी राजा दोनों घनिष्ट मित्र थे। वह छल-प्रपंच में भी माहिर था। कालकेतु के 100 पुत्र और 10 भाई थे जो बड़े ही दुष्ट और पापी थे। देवताओं, संतों और ब्राह्मणों को दु:ख देते थे। इसलिए राजा प्रतापभानु ने उन सबको युद्ध में मार डाला था। इसी बैर के चलते कालकेतु ने तपस्वी राजा के साथ सलाह कर शत्रु का नाश करने का षडयंत्र किया था। होनीवश राजा प्रतापभानु कुछ समझ नहीं सका था।
कपटी राजा अपने मित्र को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसने सारा हाल कालकेतु को सुना दिया। कालकेतु ने कहा कि राजन, अब तुम चिंता त्याग कर सो जाओ। विधाता ने बिना दवा ही रोग दूर कर दिया है। कुल सहित इस शत्रु को जड़ से उखाड़ कर चौथे दिन मैं तुमसे मिलूँगा। इस प्रकार तपस्वी राजा को दिलासा देकर महामायावी राक्षस ने राजा प्रतापभानु को क्षणभर में घोड़े सहित उसे महल में पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को घुड़साल में बाँध दिया।
फिर वो राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डाल उसे पहाड़ की खोह में ला रखा और स्वयं पुरोहित का रूप धरकर उसके विस्तर पर लेट गया। सबेरा होने से पहले ही राजा जाग गया। स्वयं को अपने महल में पाकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मन ही मन राजा ने कपटी मुनि की महिमा का गुणगान किया।
राजा को तीन दिन तीन युग के समान लगे। इस दौरान उसकी बुद्धि कपटी मुनि के चरणों में ही लगी रही। उपयुक्त समय जानकर पुरोहित के वेश में राक्षस उसके सामने प्रकट हुआ। राजा को कपटी मुनि के साथ हुई गुप्त सलाह बताई। संकेत के अनुसार गुरु को पहचानकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश राजा को यह भी पता न चला कि यह तपस्वी मुनि नहीं बल्कि राक्षस है। राजा ने तत्काल एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रण दे दिया।
पुरोहित बने राक्षस ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है. बनाए। उसने मायामय रसोई तैयार की। इतने व्यंजन बनाए कि कोई गिन नहीं सकता था। कपट से अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस भी मिला दिया। राजा ने सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया।
ज्यों ही राजा भोजन परोसने लगा, उसी क्षण कालकेतुकृत आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठो और अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इसमें ब्राह्मणों का मांस मिला है। आकाशवाणी का विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया। होनीवश उसके मुँह से एक बात भी न निकली।
ब्राह्मणों को बड़ा क्रोध हुआ। क्रोधवश उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया। ब्राह्मणों ने कहा- अरे मूर्ख राजा! तु परिवार सहित राक्षस हो। नीच क्षत्रिय! तुने परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा लेकिन ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट हो जा। एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए। तेरे कुल में कोई पानी देने वाला न रहेगा। शाप सुनकर राजा अत्यंत व्याकुल हो गया। लेकिन एक बार फिर आकाशवाणी हुई-हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया था। आकाशाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हुए। उधर राजा वहाँ गया जहाँ भोजन बना था। राजा ने देखा कि वहाँ न तो भोजन था और न ही भोजन तैयार करने वाला पुरोहित। अपार चिंता में डूबा राजा ने लौटकर ब्राह्मणों को सारी बात बता दी और भयभीत और व्याकुल होकर राजा पृथ्वी पर गिर पड़ा।
ब्राह्मणों ने कहा- हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनी होकर ही रहेगी। ब्राह्मणों का शाप टाले टल नहीं सकता। ऐसा कहकर सभी ब्राह्मण अपने घर चले गए। जब नगरवासियों को पता चला तो वे भी चिंतित हो गए।
उधर पुरोहित को उसके घर पहुँचाकर असुर कालकेतु ने कपटी तपस्वी को सारी बात बता दी। कपटी तपस्वी ने जहाँ-तहाँ पत्र भेजे। परिणामस्वरूप राजा प्रतापभानु के शत्रु राजाओं ने उस पर आक्रमण कर दिया। शत्रु राजाओं ने नगर को घेर लिया। भयंकर लड़ाई शुरु हो गई। राजा प्रतापभानु अपने भाई और मंत्री सहित युद्ध में मारा गया। सत्यकेतु के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था।
समय पाकर यही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं। वो बड़ा ही प्रचंड शूरवीर था। राजा प्रतापभानु का भाई अरिमर्दन, कुंभकर्ण हुआ और उसका मंत्री धर्मरुचि रावण का सौतेला भाई विभीषण हुआ। अपनी प्रकृति के अनुरूप यह इस जन्म में भी नीति पर चलने वाला और धर्म के अनुसार आचरण करने वाला था। राजा के सब पुत्र और सेवक बड़े भयानक राक्षस हुए थे। इस प्रकार ब्राह्मणों का शाप पूरी तरह सत्य सिद्ध हुआ।
प्रस्तुति: वीरेंद्र सिंह
वीरेंद्र भाई, ये सब तो कही भी पढ़ने में ही नहीं आया था। शेयर करने के लिए धन्यवाद।
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 17 मार्च 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी बहुत-बहुत आभार। सादर धन्यवाद।
Deleteआपकी इस रचना व हमारी संस्कृति सभ्यता को आगे बढ़ाने के लिए सादर नमन।
ReplyDeleteये कथा पहले बार ही पढ़ी ।
ReplyDeleteनई जानकारी के लिए आभार ।
आदरणीय दीदी
Deleteतुलसी कृत रामायण में नहीं है ये कथा
एक बड़े रामायण में है,उसमें कई क्षेपक हैं
उन्ही क्षेपकों में ये कथाएँ हैं, जैसै सहस्त्रबाहु, बाली-रावण युद्ध.. वो भी तुलसीकृत ही है,वे सब क्षेपक हटाने के बाद हम जो पढ़ते हैं वह हैं।
गीता प्रेस. वाले मूल रामायण मांगने पर उपलब्ध करवा देते हैं..
सादर नमन..
बहुत-बहुत आभार। जानकार बहुत ख़ुशी हुई। प्रस्तुत प्रसंग श्रीरामचरितमानस के बालकांड में अध्याय 36, (पृष्ठ 159 से शुरु) मिल जाएगा। पाठ का नाम राजा प्रतापभानु की कथा है। सादर।
Deleteबहुत-बहुत आभार। जानकार बहुत ख़ुशी हुई। प्रस्तुत प्रसंग श्रीरामचरितमानस के बालकांड में अध्याय 36, (पृष्ठ 159 से शुरु) मिल जाएगा। पाठ का नाम राजा प्रतापभानु की कथा है। सादर।
Deleteबहुत बहुत सुन्दर प्रसंग साझा करने के लिए धन्यवाद आभार ।
ReplyDeleteआलोक जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।
Deleteजय जय श्री राम
ReplyDeleteसादर..
जय जय श्रीराम। आपका बहुत बहुत आभार। सादर धन्यवाद।
Deleteजानकारी देती रचना...धन्यवाद ।
ReplyDeleteब्लॉग पर आपका स्वागत है। आपका बहुत-बहुत हार्दिक आभार।
Deleteअपनी संस्कृति से जुडी ये कथा पढ़कर आनंद आया..कर्म जान बूझकर हो या अनजाने में कर्म फल भुगतना ही पड़ता है,सादर नमन आपको
ReplyDeleteइतनी सुंदर और संस्कृति से जुड़ी कथा उपलब्ध कराने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद वीरेंद्र भाई,आपके सुंदर मनोभावों को नमन तथा हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत आभार। सादर।
Deleteबहुत सुन्दर कथा....
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत धन्यवाद।सादर।
Deleteप्रिय वीरेंद्र जी,ये प्रसंग शायद सुना सा है पर याद नहीं आ रहा है कि कहीं कुछ पढा हो।आज राम विषयक ये तीसरा लेख है।रोचक जानकारी के लिए बधाई और शुभकामनाएं।आपके ब्लॉग पर आकर टिप्पणी करने में पसीने छूट जाते हैं।कृपया अपने ब्लॉग पर टिप्पणी बॉक्स और मूल लेख के बीच कुछ ना आने दें।लोकप्रिय रचनाएँ कई-कई बार दिख रही है ^
ReplyDeleteआशा है कि आप इस ओर ध्यान देंगे।हार्दिक शुभकामनाओं सहित रेणु 🙏
तुलसीदासजी की श्रीरामचरितमानस में यह कथा दी गयी है। टिप्पणी करने में होने वाली समस्या पर आपके सुझाव पर अमल किया जाएगा। आपकी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आपका बहुत-बहुत आभार। सादर धन्यवाद।
Deleteसभ्य और शालीन प्रतिक्रियाओं का हमेशा स्वागत है। आलोचना करने का आपका अधिकार भी यहाँ सुरक्षित है। आपकी सलाह पर भी विचार किया जाएगा। इस वेबसाइट पर आपको क्या अच्छा या बुरा लगा और क्या पढ़ना चाहते हैं बता सकते हैं। इस वेबसाइट को और बेहतर बनाने के लिए बेहिचक अपने सुझाव दे सकते हैं। आपकी अनमोल प्रतिक्रियाओं के लिए आपको अग्रिम धन्यवाद और शुभकामनाएँ।